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धूप ढलने से पहले / शरद कोकास
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी के अंधे कुयें से
वक़्त उलीचते हुए
हाथों के छाले बन जाते हैं
आनेवाले दिन
सुबह सुबह
दरवाज़ा खटखटाती है धूप
नींद की किताब का पन्ना मोड़कर
मिचमिचाती आँखों से
अतीत को साफ करता हूँ
बिछाता हूँ धूप के लिए
समस्याओं की चटाई
याद दिलाती है धूप
भविष्य की ओर जाने वाली बस
बस छूटने ही वाली है
उम्र की रस्सियों से बंधी
परम्पराओं की गठरी लादते हुए
मुझे उष्मा से भर देता है
धूप की आँखो में उमड़ता वात्सल्य
धूप को भी उम्मीद है
उसके ढलने से पूर्व
मैं बड़ा आदमी बन जाउंगा।