भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूप ढलने से पहले / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
ज़िन्दगी के अंधे कुयें से
वक़्त उलीचते हुए
हाथों के छाले बन जाते हैं
आनेवाले दिन
 
सुबह सुबह
दरवाज़ा खटखटाती है धूप
नींद की किताब का पन्ना मोड़कर
मिचमिचाती आँखों से
अतीत को साफ करता हूँ
बिछाता हूँ धूप के लिए
समस्याओं की चटाई
याद दिलाती है धूप
भविष्य की ओर जाने वाली बस
बस छूटने ही वाली है
 
उम्र की रस्सियों से बंधी
परम्पराओं की गठरी लादते हुए
मुझे उष्मा से भर देता है
धूप की आँखो में उमड़ता वात्सल्य
 
धूप को भी उम्मीद है
उसके ढलने से पूर्व
मैं बड़ा आदमी बन जाउंगा।