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धूप थी साया उठा कर रख दिया / साहिल अहमद
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धूप थी साया उठा कर रख दिया
ये सजा तारों का महज़र रख दिया
कल तलक सहरा बसा था आँख में
अब मगर किस ने समुंदर रख दिया
सुर्ख़-रू होती है कैसी ज़िंदगी
दोस्तों ने ला के पत्थर रख दिया
मुंदमिल ज़ख़्मों के टाँके खुल गए
बे-सबब तुम ने रूला के रख दिया
साबित-ओ-सालिम था दामन कल तलक
तुम ने आख़िर क्यूँ जला कर रख दिया
मिट गई तिश्ना-लबी आख़िर मिरी
जब गले पर उस ने ख़ंजर रख दिया
रो पड़ी आँखें बहुत ‘साहिल’ मिरी
जब किसी ने हाथ सर पर रख दिया