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धूप लगी शहतीरें / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
धुले पान-सी नर्म हथेली
उभरी हुई लकीरें,
तेज़ छुरी-सी साँसें
मन का हराहरापन चीरें।
ओंठों खिली सुर्खियाँ सूखीं
कंधों ढली दुपहरी,
पनघट से रीती गागर तक
प्यास अनबुझी ठहरी,
उतरी नदी उम्र की, देकर-
घर की कुछ तस्वीरें।
दाँतों सी हिलती खपरैलें
तिनके-तिनके काँपे,
छाजन से बिस्तर बँड़ेर तक
लटके हुए बुढ़ापे,
झुकी कमर खम्भे-सी पकड़े
झूलें ‘मोती-हीरे’।
आँसू, सपने, नींद नहीं
सूनी सपाट दो आँखें
जलती लौ-सी काँप-काँप कर
घिरा अँधेरा आँकें
उठे धुएँ से स्याह पड़ गईं
धूप लगी शहतीरें।