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धूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ / गौतम राजरिशी
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धूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ
चाँद उगा फिर अम्बर मालामाल हुआ
साँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
आँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
ज़िक्र छिड़ा है जब भी उनका यारों में
ख़ुश्बू ख़ुश्बू सारा ही चौपाल हुआ
उम्र वहीं ठिठकी है, जब तुम छोड़ गये
लम्हा, दिन, सप्ताह, महीना, साल हुआ
धूप अटक कर बैठ गयी है छज्जे पर
ओसारे का उठना आज मुहाल हुआ
चुन-चुन कर वो देता था हर दर्द मुझे
चोट लगी जब ख़ुद को तो बेहाल हुआ
कल तक जो देता था उत्तर प्रश्नों का
आज वही उलझा-सा एक सवाल हुआ
छुटपन में जिसकी संगत थी चैन मेरा
उम्र बढ़ी तो वो जी का जंजाल हुआ
(कृति ओर अप्रैल-सितम्बर 2011, अहा ज़िंदगी जुलाई 2011, पर्वत राग अंक-7)