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धूप सीधे आइने पर है / प्रमोद तिवारी

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धूप सीधे आइने पर है
और चेहरों पर मुखौटे हैं

कठपुतलियों की पकड़कर डोर
मनचाहा नचातीं
कुछ अंगुलियां हैं
घोंसलों की बात
मत करिए, यहां पर
पास में उनकी बिजलियां हैं
खेल सब बाजीगरों के हैं
हारकर हर दांव लौटे हैं

पालने में ही मिली
यात्रा पहाड़ों की
जन्म से ही
फूलता है दम
कोशिशें जितनी भी की हैं
मुस्कराने की
आँख उतनी ही हुई है नम
उड़ न पाये
पास अम्बर है
मन बड़ा है
पंख छोटे हैं

हर नदी
जैसे बिछौना
रेत का हो
बोलती है
बूंद की तूती
मुंह खुले हैं
सीपियों के
बंद ही होते नहीं
बनते नहीं मोती
वक्त की अपनी कसोटी है
हम खरे होकर भी खोटे हैं