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धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी।
पेड़ सारे कैद करती गर्मियों की ये दुपहरी।
जल रही भू, चल रही लू, सूर्य मनमानी करे अब,
देख डर से काँप जाती गर्मियों की ये दुपहरी।
सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर,
क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी।
आम का एक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है,
याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी।
मन झुलसता, जल रहा तन, बोझ सा हो गया जीवन,
नर्क का ट्रेलर दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी।