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धूप ही धूप मुझको भाती है / राम नाथ बेख़बर

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धूप ही धूप मुझको भाती है
चाँदनी अब कहाँ सुहाती है

देखकर रौशनी को कुटिया में
तीरगी खूब मुँह चिढ़ाती है

बुझते दीपक को देखती है जब
रौशनी खूब छटपटाती है

चाहता हूँ मैं खूब बात करूँ
तेरी हर बात दिल को भाती है

नाम उनका लबों पे आते ही
मेरी आवाज़ लड़खड़ाती है

रफ़्ता रफ़्ता मैं रोज़ मरता हूँ
मौत फिर भी मुझे डराती है

शाख़ पर बैठे-बैठे इक तितली
फूलों को लोरियाँ सुनाती है