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धूप है ज़्यादा कम है छाया / रमानाथ अवस्थी

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           धूप है ज़्यादा, कम है छाया
           आख़िर यह मौसम भी आया !

टूट चुका है नींद का जादू, कोई सपना साथ नहीं है,
कहने को तो है बहुतेरा, वैसे कोई बात नहीं है !
           सारी रात रहा खुलता जो,
           सुबह वही घूँघट शरमाया !

धुँधली हैं तारों की गलियाँ, पाप के रस्ते चमकीले हैं,
काँटे हैं वैसे के वैसे, फूलों के चेहरे पीले हैं !
           ख़ुशबू भटके मारी-मारी
           मधुवन का है अंग लजाया !

साँझ के दरवाज़े तक हमको, छोड़ गई हैं दिन की राहें,
बस्ती के ऊपर फैली हैं, साँपों जैसी काली बाँहें !
           मौत के रंग से ज़्यादा गहरा,
           उजले इनसानों का साया !

गीत के सौदे करने वाले, दर्द की क़ीमत को क्या जानें,
कौन उन्हें जाकर समझाए, बिकते नहीं कभी दीवाने !
           अन्धकार के रंगमहल में,
           कब कोई सूरज सो पाया ।

तेज़ बहुत हैं वक़्त के पहिए, अब रुकने की बात करें क्या,
राह में क्या कुछ टूटा-फूटा, सोच इसे अब आँख भरें क्या ?
           आओ अब सामान सम्भालें,
           देर हुई यह शहर पराया !