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धूप / अभिज्ञात
Kavita Kosh से
नंगे पाँव चल के मैं आया था धूप में
तू था, किसी दरख्त का साया था धूप में
कुछ अपनी भी आदत सी हो गयी थी दर्द की
कुछ हौसला भी उसने बढा़या था धूप में
सबके लिये दुआएं उसने मांगी दवा की
मुझको ही मसीहा ने बुलाया था धूप में
अपनी तो सारी उम्र ही इसमें निकल गई
मत कर हिसाब खोया क्या पाया था धूप में
गैरों ने क्या किया था ये याद क्या करें
खुद अपना भी तो साया पराया था धूप में