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धूप / जितेन्द्र श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
धूप क़िताबों के ऊपर है
या
भीतर कहीं उसमें
कहना
मुश्किल है इस समय
इस समय मुश्किल है
कहना
कि क़िताबें नहा रही हैं धूप में
या धूप क़िताबों में
पर यह देखना और महसूसना
नहीं मुश्किल
कि मुस्कुरा रही हैं क़िताबें
धूप की तरह
और धूप गरमा रही है क़िताबों की तरह ।