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धूप / नरेश सक्सेना
Kavita Kosh से
सर्दियों की सुबह, उठ कर देखता हूँ<ref>(कविता की यह पहली पंक्ति कमला प्रसाद की एक टिप्पणी से)</ref>
धूप गोया शहर के सारे घरों को
जोड़ देती है
ग़ौर से देखें अगरचे
धूप ऊँचे घरों के साये तले
उत्तर दिशा में बसे कुछ छोटे घरों को
छोड़ देती है ।
पूछ ले कोई
कि किनकी छतों पर भोजन पकाती
गर्म करती लान,
औ ‘बिजली जलाती धूप आखिऱ
नदी नालों के किनारे बसे इतने ग़रीबों से क्यों भला
मुँह मोड़ लेती है.
शब्दार्थ
<references/>