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धूप / राकेश खंडेलवाल
Kavita Kosh से
बैठी है कबसे आँगन में अलस घुली उजियारी धूप
रह रह मुझसे बतियाती है तन्हाई की मारी धूप
वैसे तो आने वाला इस ओर नहीं है कोई भी
फिर भी कागा बन मुँडेर पर आकर मुझे पुकारी धूप
कंगूरों पर चढ़ कर बैठी, दालानों से दूर रही
बंगलों में रहती है, शायद हो बैठी सरकारी धूप
दुल्हन की आँखों का काजल यूँ तो अक्सर रात बनी
अब श्रन्गार नया करती है साँझ ढले कजरारी धूप
सोचा था मैने बातों में हँस कर समय गुजर लेगा
लेकिन फिर ले आई यादें प्रियतम की बजमारी धूप
इसमें इसका दोष नहीं है, मुझे गीतिका लिखनी थी
शब्द कोई चुनना था, मैने चुन ली यही बिचारी धूप