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धूम / रमेशचन्द्र शाह
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बहुत दूर तक साथ
चली थी
पर्वतमाला
बहुत दूर तक साथ
चला था जंगल अपने
फिर था वह सब बिला गया
सूने सन्नाटे में
..............
चलते- चलते
दीखा अचानक
सूखी एक सपाट नदी के
वक्षस्थल पर
गायों- भैंसों का हहराता
पूरा एक
हुजूम....
जैसे कोई सभा
वहाँ होने वाली हो
आने ही वाले हों कोई
महामहिम-हाँ
कोई
पशुपतिनाथ
इस तरह
मची हुई थी
धूम!!!
यात्रा कब की बीत चुकी
पर
बीत नहीं पाया वह दृश्य
अभी तक
सोते- जगते
कहीं कभी भी
हहराने लगता है मुझमें
अरे! वही का वही समूचा
पूरा एक हुजूम
मचने लगती मुझमें
वैसी की वैसी वह
गूंगेपन की
धूम!