धूल-धूसरित अप्सरा / निलय उपाध्याय
उस युवती पर
जो दिखने में थी धूल-धूसरित
पर अप्सरा जैसी, उस पर आराम से
लिखी जा सकती थी, कोई कविता,
एक अच्छी-सी कहानी, अगर पहुँच गई होती
वह मीरा रोड
उस कहानी पर
सीरियल बनाया जा सकता था
फ़िल्म बनती तो ज़रूर हिट हो जाती
खोज का एक मिथक था उसका जीवन
कहाँ मिलती है
आजकल ऐसी सच्ची कहानी
धूपिया रंग था उसका
दूर-दूर तक फैले सागर में
पत्थर-सी उभरी थी उसकी आँखें
जिसमे भरी थी किसी के लिए
बेपनाह मोहब्बत
खुलती थी तो
दौड़ती दिखाई देती थी लहरें
पूरब से पश्चिम की दिशाओं तक
प्याज के गाँठ की तरह
अपनी ही परतों मे कस-कस कर रची
बोलने मे तुतलाती थी,
मगर भाषा मे इतना अपनापन था
कि स्वर की लहरियाँ लगती थी आवाज़
देखते ही देखते काला पड़ गया
उसका रंग,
आँखों के कोर से लुढ़की एक सूखी नदी
बेआवाज़ होंठ हिले पर कुछ नहीं कह पाई वह
दादर स्टेशन पर
जब उसे गिरफ़्तार कर ले गई पुलिस
उसे क्या पता था कि
दो दिलो के बीच आ जाएगा
दो मुल्को का कानून, और नसीब
होगी जेल
अपने पति की तलाश मे
जाने कितनी नदियाँ
कितने पहाडों के किन-किन राहों से चलती
किन-किन उम्मीदों के साथ
बांग्लादेश के किसी गाँव से मुम्बई आई थी
वह
धूल-धूसरित अप्सरा