धूल की चादर लिपेटे राह में बैठा हूँ मैं / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी
धूल की चादर लिपेटे राह में बैठा हूँ मैं
जाने क्यों दुनिया समझती है कि बेपर्दा हूँ मैं
रहनुमाई में कुछ ऐसी बदगुमानी भी रही
आज अपने-आप से मिल कर बहुत रोया हूँ मैं
है मेरे एहसास का धोखा कमाले-तिश्नगी
बादलों में रह के भी क्यों आज तक प्यासा हूँ मैं
यूँ मुझे पिघला दिया है गर्मी-ए-एहसास ने
मोम के पैकर में गोया एक अंगारा हूँ मैं
देखकर जिसको हुईं फूलों की आँखें अश्कबार
ऐ चमन वालो! वही ग़मनाक नज़्ज़ारा हूँ मैं
हमदमो ! देखा नहीं तुमने मेरे अन्दर का चोर
यूँ तो इक मासूम-सा चेहरा लिए फिरता हूँ मैं
चार-सू<ref>चहुँ ओर </ref>चरचे हैं मेरी ताक़ते-परवाज़<ref> उड़ान का सामर्थ्य </ref> के
है सितारों को भरम दम तोड़ के बैठा हूँ मैं
इश्क़ में गुलशन-परस्ती <ref>उद्यान-पूजा </ref>ही मेरा ईमाँ सही
ज़ौक़े-गुलबोसी<ref>फूल को चूमने की ललक</ref> में काँटों पर ज़बाँ रखता हूँ मैं
इन्तहा-ए-बेख़ुदी का देखिए ये भी कमाल
एक पुर-असरार आलम पर निगह <ref>दृष्टि </ref>रखता हूँ मैं
ज़िन्दगी में हर तमन्ना सेज बनकर रह गई
बारहा<ref>प्राय: </ref> सोया हूँ जिसपर बारहा सोया हूँ मैं
दोस्ती और दुशमनी की इन्तहा<ref>पराकाष्ठा </ref> से पेशतर<ref>पूर्व, पहले </ref>
जज़्बा-ए-तक़्दीस से पूछो कि क्या कहता हूँ मैं
हश्र<ref>प्रलय</ref> में आमाल-नामे<ref>कच्चे-चिठ्ठे</ref> जब पढ़े जाने लगे
कुछ फ़रिश्तों की सिफ़ारिश पर पलट आया हूँ मैं
’चाँद’ हूँ धरती का लेकिन है गगन मंज़िल मेरी
चाँद ही के साथ अक्सर घूमता रहता हूँ मैं