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धूल झाड़कर खड़ा होता ज़रूर / मलय
Kavita Kosh से
थकावट को चीरकर
हाँफती साँसों की ज़िन्दगी
ज़बरदस्त हादसों में
कमर तोड़ चढ़ाई
रिक्शा खींचते हुए
बहुत बातें याद आती जातीं
बोलने से
सवारियाँ नाराज़ हो जातीं
तो पीठ पर ही डाँट डपट झेलता-ढोता
लोग अपने पैर पसारते-पसारते
उसके भूखे पेट से लटकाकर बैठते
आकाश तक आँखों में चकरा जाता
सीधी तरह चाक भी
ज़मीन पर चलने से चुकने लगता
चकरी की तरह घूमते-घूमते हैरान
होश खो बैठने से
बार-बार बचते
धूल तक
हँस-हँसकर उड़ने से बाज नहीं आती
धरती-धकियाती तो थोड़ा गुस्सा
धूल झाड़कर खड़ा होता ज़रूर
सवारियाँ पूरी तरह सतर्क
तरक़ीब से चेहरा पढ़ता
तौलता तो ख़ुद पासंग हो जाता
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