भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूल झाड़कर खड़ा होता ज़रूर / मलय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थकावट को चीरकर
हाँफती साँसों की ज़िन्दगी
ज़बरदस्त हादसों में
कमर तोड़ चढ़ाई
रिक्शा खींचते हुए
बहुत बातें याद आती जातीं
बोलने से
सवारियाँ नाराज़ हो जातीं
तो पीठ पर ही डाँट डपट झेलता-ढोता

लोग अपने पैर पसारते-पसारते
उसके भूखे पेट से लटकाकर बैठते
आकाश तक आँखों में चकरा जाता
सीधी तरह चाक भी
ज़मीन पर चलने से चुकने लगता
चकरी की तरह घूमते-घूमते हैरान
होश खो बैठने से
बार-बार बचते
धूल तक
हँस-हँसकर उड़ने से बाज नहीं आती
धरती-धकियाती तो थोड़ा गुस्सा
धूल झाड़कर खड़ा होता ज़रूर

सवारियाँ पूरी तरह सतर्क
तरक़ीब से चेहरा पढ़ता
तौलता तो ख़ुद पासंग हो जाता
</poem