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धूल / श्रीनाथ सिंह
Kavita Kosh से
जब मैं छोटा सा बच्चा था,
खेला करता था अति धूल।
कहती थी माँ - फूल रहा है,
वाह, धूल में क्या ही फूल।
मुझसे ही कितने ही बच्चे,
थे सच्चे मेरे साथी।
कोई बन जाता था घोड़ा,
कोई बनता था हाथी।
लकड़ी के हल बैल बना कर,
कोई बनता चतुर किसान।
कहीं बाग तालाब दीखते,
बनते कहीं खेत खलिहान।
मनमाना घर बना धूल में,
खेला करते थे सब लोग।
हाय ! न अब आ सकता है,
जीवन में वह सुखमय संयोग।
खेल न है वह,मेल न है वह,
गये धूल में मिल सारे।
चिन्ताओं में चूर पड़े हैं,
सब संगी साथी प्यारे।
अरी धूल! तू तो है अब भी,
हाँ,न रहा बचपन मेरा।
पर इससे क्या -उर में है,
वैसा ही पूर्ण प्यार तेरा।
मात्रभूमि की सेवा का जो,
लेते हैं अपने सिर पर भार।
वे अवश्य ही बाल्य काल में,
कर चुकते हैं तुझको प्यार।