भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूसर वसंत / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 वसन्त आया है
पतियाया-सा सभी पर छाया है
हर जगह रंग लाया है
पर यह देख कर कि कीकर भी पियराया है
मेरा मन एकाएक डबडबा आया है।
नहीं, इस बार, मेरे मीत!
नहीं उमड़ेगी धार
मैं नहीं गा सकूँगा गीत
इस बार, बस, घुमड़ेगा प्यार
और चुप में रिस जाएगा
बहेगी नहीं बयार न सिहराएगी
इस बार चिनचिनाती आँधी आएगी
घुटूँगा मैं और फूले भी बबूल को
धूसर कर जाएगी
धूल, धूल, धूल...

नयी दिल्ली, मार्च 1980