धैर्य के द्वीप / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'
नये अर्थों को तलाशते हुए
आशाएँ स्वप्नों का बादल बन
सौहार्द के सामीप्य से
उतनी ही स्नेहिल रहती हैं
जैसे चिड़िया की चोंच में
क्षुधा की तृप्ति को समर्पित अनाज का एक दाना.
सांध्य बेला की लालिमा में
अवध के आसमान में तैरते असंख्य नन्हे पाखी हृदय
जीवन के सौंदर्य का केवल एक पक्ष निहारते
कभी सुनते
कभी स्मृतियों की धुरी पर
अपने गतिमान होने को टटोलते.
कैसा होगा सुख प्रिय?
जो रिसता होगा तुम्हारी आँखों से
तुम्हारे एकांत में.
और कैसा होगा मेरा दुःख?
जिसने खोजा होगा
धरती का एक समतल टुकड़ा
प्रतीक्षा के क्षितिज तक.
यह चार पहर क्या कम हैं जीवन के चार दरवाज़ों से?
जिनकी चौखट पर मेरी परछाई खड़ी रहती है दिन भर.
मगर तुम फिर भी मेरा कोई तर्क न मानना
क्योंकि वृक्षों पर फलों के साथ
सदा उगता है असीम धैर्य.
('अज्ञेय' को समर्पित, जिनके एकांत पर दृष्टि भी नहीं डाली जा सकती. मेरी अनुभूति में उनका असीम विस्तार है)