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धोखे खाने हैं / योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
Kavita Kosh से
नित्य आत्महत्या करती हैं
इच्छाएँ सारी !
आय अठन्नी, खर्च रुपैया
इस महंगाई में
बड़की की शादी होनी है
इसी जुलाई में
कैसे होगा? सोच रहा है
गुमसुम बनवारी
बिन फ़ोटो के फ़्रेम सरीखा
यहाँ दिखावा है
अपनेपन का विज्ञापन-सा
छलावा है
अपने मतलब की ख़ातिर नित
नई कलाकारी !
हर पल अपनों से ही सौ-सौ
धोखे खाने हैं
अंत समय तक फिर भी सारे
फ़र्ज़ निभाने हैं
एक अकेला मुखिया घर की
सौ ज़िम्मेदारी !