चौपाई:-
इतना सुनि रहि सकत न रानी। दशगुन लाभ पाव जिय मानी॥
ध्यानदेव कंह जाय सुनाऊ। सुनत हि राजा विप्र पठाऊ॥
आदर के योगी लै आवहु। इहां आनि मोहि दरश करावहु॥
जाय विप्र अस वात जनाऊ। दर्शन कारन वैठयो राऊ॥
कृपा युक्त अव धारिय पाऊ।...
विश्राम:-
कह योगी सुनु वंधुवो, हमैं प्रयोजन नाहि।
परिहरि आसन आपनो, राव जोहार न जांहि॥170॥
चौपाई:-
विप्र वहुरि गो नृपके ठांऊ। सिद्ध वचन विधि प्रगट सुनाऊ॥
पुनि अस मंत्र कियो नर नाहू। महथ पुरोहित पठवो ताहू॥
हर्षित महत पुरोहित आऊ। वहुविधि कियो परस्पर भाऊ॥
हम कीन्हो तव वचन प्रकासा। नृप आज्ञा आयउ तुव पासा॥
चलहु कृपा करि जहां भुवारा। आपन कै जानहु दर्वारा॥
विश्राम:-
महथ पुरोहित वचन हित, कह्यो कृपा समुझाय।
सपनंतर शिवगौरी को, प्राणमती जस पाय॥171॥
चौपाई:-
सुना कुंअर तव शीश डुलावा। करन वखेडा तुम सब आवा॥
हम अतीथ तुम क्षत्रिय राजा। अनुचित वात कहो केहि काजा॥
बहुरि उतर उपरोहित दियऊ। हमरो वचन विलग चित कियऊ॥
अपने मन धौं करहु गियाना। ऐसी बात न खेल समाना॥
सहजहिं राजकुंअर वहुतेरे। काहे तुमते कहहिं घनेरे॥
विश्राम:-
मन वच क्रम दिल कामिनी, मन गौरी शिवपास।
पाँच वरिस मत अन्तरे, पूजी मनकी आस॥172॥
चौपाई:-
जब अस निश्चल वचन सुनाई। तबहि कुंअर निष्ठा नहि जाई॥
जाति पांति जाकर नहि जानी। तोसों अस नहि कहिये कहानी॥
वहुरि महथ अस उत्तर दयऊ। सुनहु कुंअर शिव अस कहि गयऊ॥
भेष धरे है राजकुमारी। विमल वंश है जग उंजियारा॥
आदि महोदधि पार वताई। भावी प्रवल पकड़ लै आई॥
विश्राम:-
शिव आज्ञा भौ सुन्दरी, तुमहि कहों सत भाव।
पुरविल कोउ तप आगर, अस सुख सागर पाव॥173॥
चौपाई:-
मनमोहन से कहु समझाई। एक वचन निश्चल सुनुभाई॥
आज सयन आसनयहि ठाऊं। सुमिरन भजन जगत पति नाऊं॥
जो मोहि सो सपना शिव भाषै। अवशि तुम्हारे आयसु राखे॥
ना तो हमहिं चाह कछु नाहीं। ध्यान धरों धरनीश्वर पाहीं॥
भीतर है गुरुदेव हमारा। अन्तर गत विनवों कर्त्तारा॥
महथ पुरोहित नृप पंह आये। कुंअर कहानी सकल सुनाये॥
विश्राम:-
ध्यानदेव अनुमान करि, पुरजन राख्यो पास।
योगी की रक्षा करो, नातो करों विनाश॥174॥
चौपाई:-
तबहिं सबन सुख निद्रा आई। जागत आधी रैन विताई॥
पांढ़े कुंअर सुमिरि त्रिपुरारी। कहे सपन तव राजकुमारी॥
की तोहि देवन के समुझावा। अब कस मान गुमान वढावा॥
प्रभु की कृपा सुफल करु देही। मिलि रहु पुरविल प्रेम सनेही॥
मोर महथ उपरोहित आऊ। पूंछे कुंअरहिं सुपन सुभाऊ॥
जो देवै पर होय गोसाई। जो न लेय तो दे वरियाई॥
विश्राम:-
परमेश्वर सव कृति करयो, मूरख नर संसार॥
करि शंसय जग भूलिया, धरनीदास पुकार॥175॥