ध्यान लगावऽ / शेष आनन्द मधुकर
जनता राज बड़ा सुख देतो,
पाठक जी अनुमान लगावऽ।
देवी देवता भूल भाल के,
चरइत भैंस के धेयान लगावऽ।
पत्थर पुजलऽ केत्ता दिन तक,
कहियो न तकदीर बदललो।
खुस हो लो जजमान अगर तो,
एगो पीयर धोती मिललो।
दछिना देइत नाक सिकुड़ऽ हव,
अन्न देइत मन हो हव खाली।
जजमानिन गर दया करलथुन,
तऽ तीतर के छोटहन थाली।
दान दच्छिना के धंधा से,
अब तूँ अप्पन जान छोड़ावऽ।
पहिले के अदमी हल सोना,
सरग नरक सभ कुछ मानऽ हल।
पांडेजी के बुतरुन क भी,
देवता से बढ़ के जानऽ हल।
सरधा से माथा झुकऽ हल,
देह झुकऽ हल जइसे लाठी।
भरल रहल हल बरतन कपड़ा,
सोना, चांदी, चंदन-काठी।
पूजा भी फैशन हो गेलो,
तूँ अप्पन भगवान बचावऽ।
जे कुर्सी पर चढ़ गेलथु हे,
उनके सत्यनरायन समझऽ।
चमचन के पंचदेव नवग्रह,
गारी के रामायन समझऽ।
उनके पूजा करऽ ठाट से,
अच्छत चंदन फूल न लगतो।
आधो आँख खोल के कहिनो,
देख लेथु, तऽ सब कुछ मिलतो।
जुग बदलइत हे, तूँ हूँ बदलऽ,
मोंछ गिरा के सान बढ़ावऽ।