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ध्यान / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
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जब भी संवाद करता हूँ
पृष्ठभूमि में कोई
आलाप भरता है
क्या बात आगे बढ़ाऊँ?
या उस आलाप में ध्यान लगाऊँ?
कौन-से शब्द
संवाद से समयातीत हैं
पर आलाप से लीन हैं
एक सूनापन-सा तारी होता है
जैसे कहीं खड़े हों
आकाश में अकेले
संवाद की डोर को ढूँढ़ते
बस चारों ओर आलाप
आकाश को थरथराता
बार-बार उसको उठाता
कि धनुष टूट जाये
संवा छूट जाये
संवाद छूट जाये
बस गूँज हो चारों ओर
अनहद नाद की।