धरनी निर्मल नासिका, निरखु नयनकी कोर।
सहजै चन्दा ऊगि है, होइहै भव न अंजोर॥1॥
धरनी ध्यान तहाँ धरो, उलटि पसारो दृष्टि।
सहज सुभावहिं होत जहँ, पुहुप माल की वृष्टि॥2॥
धरनी ध्यान तहां धरो, प्रगट जोति वहराय।
मणि माणिक मोती झरै, चुगि 2 हंस अघाय॥3॥
धरनी ध्यान तहाँ धरो, त्रिकुटी कुटी मँझार।
धरके वाह अधर है, सनमुख सिरजनहार॥4॥
धरनी अधरे ध्यान धरु, निशि वासर लौ लाइ।
कर्मकीच मगु बीच है, कंचन गच होइ जाय॥5॥
कर्मकीच मगु बीच है, कंचन गच होइ जाय।
धरनी ध्यान न दूसरो, आदि मध्य अरु अन्त॥6॥