भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ध्रुवतारा / विभूति आनन्द

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
हम अपना अंदर
मात्र एकटा इंद्रधनुष ल’ क’
गुनगुनाए नहि चाहैत छी
हम जीब’ चाहैत छी
एकटा संपूर्ण आकाश
जाहि आकाशमे
एकटा समन्वित स्वप्न
एकटा समन्वित जीवनक संग
कुम्हार-मोन लेले टहलल-बूलल करए

ई समय
हमरा एकटा इन्द्रधनुष द’ क’
फुसियाब’ चाहैत अछि
सभकें फराक-फराक आकाश
फराक-फराक जीवन
फराक-फराक स्वप्नसँ
फराक-फराक राख’ चाहैत अछि

चतुर्दिक वायुरोग, आ
तनाव बढ़ि रहल अछि
वेतनक नियमितता पर
संदेह चढ़ि रहल अछि
अकारण मकान मालिक
मुँहाँबज्जी बन्द क’ लेलक अछि
सहसा
मसक’ लागल अछि चादर
मूस आ छुछुन्नरि आ मोसक
आक्रमण बढ़ि गेल अछि
कोनो-ने-कोनो कारण ल’ क’
समाज हकमि रहल अछि
आ तें,
आरोप प्रत्यारोपक संसद गरमा उठल अछि
अछैत तमाम विपरीतक
हम हारब पसिन्न नहि करैत छी
अपन सुख-दुख जीवन
समूहमे गाब’ चाहैत छी
अपन एहि स्वप्निल स्नेहिल ग्रह-नक्षत्रक बीच
शीत-तापसँ लड़ैत
प्रतीक्षा कर’ चाहैत छी एक धु्रवतारा
अपन-अपन अंदर दिपदिपाब’ चाहैत छी.....