ध्वंस और सृष्टि / महेन्द्र भटनागर
ध्वंस की आँधी चली है,
मौत की घंटी बजी है !
चीत्कारें
दुख भरी व्याकुल पुकारें !
रक्त की नदियाँ;
बहीं बन लाश की लड़ियाँ भयंकर !
नाश की घड़ियाँ गरजती आ रही हैं !
विश्व के भू-खंड के प्रत्येक कण-कण से
जहाँ भी टारनेडो-वेग भर
ज्वाला बढ़ी है;
और आगे साध साधे
क्रूर बढ़ती जा रही है
दृश्य पुनरावृत्ति !
अग्नि की धू-धू शिखाओं से
जली है पूर्ण मानवता !
कि गूँजा जग कराहों से
कि चीखे जन —
‘बचाओ रे, बचाओ रे !
प्रलय की अग्नि से आहत
मरण की कल्पना से डर
प्रखर स्वर बोलते करुणा भरे —
‘हा, हा बचाओ रे !’
कि गरजे ज़ोर से बादल,
कि बरसे ज़ोर से बादल,
जगत में मच रही हलचल !
नयी दुनिया
बनाएंगे, बसाएंगे !
उजड़ती बस्तियाँ हैं तो
उजड़ने दो,
नये युग के लिए
बलिदान होने दो !
अशिव कर दूर — दानवता मिटा,
फिर से
नयी दुनिया बसाएंगे !
नया भूतल उठाएंगे !
बहा देंगे
समुन्दर प्रेम का,
समता, प्रगति, स्वातंत्र्य का चहुँ ओर !
आये मेघ जीवन के
गरजते घोर !