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ध्वनित नारीत्व / शलभ श्रीराम सिंह

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मृत्यु !
जब उच्चारता हूँ तुम्हें
ध्वनित होता है सहज नारीत्व !
नारीत्व : जिसको
देखते-सुनते-परसते-भोगते
स्वयं को रीता हुआ-सा लग रहा हूँ मैं !
या कि उसके साथ
वर्षों-दिनों-घड़ियों-क्षणों में बीता हुआ-सा... !

मृत्यु
जिसके स्तनों का दूध
मेरी धमनियों में रक्त बन कर बह रहा है
तुम कभी वह लगीं !
और जिसके हाथ का धागा कलाई पर बँधा है
तिलक माथे पर लगा है
तुम कभी वह लगीं ! साक्षी है पर्व राखी का !

मृत्यु !
जिसकी एक पैनी दृष्टि से बिंध कर
बन गया मैं अर्द्धमृत शाश्वत,
कहा था जिसने सुलगती दुपहरी में एक दिन
’प्यार की सौगन्ध खाकर कहो - भूलोगे नहीं मुझको !’
तुम कभी वह लगीं !
और जिसके साथ बरियाईं मुझे बाँधा गया था
धनुष पर सीमन्त के शर-सा मुझे साधा गया था
शास्त्र ने अर्द्धांगिनी की जिसे संज्ञा दी
तुम कभी वह लगीं !
मृत्यु !
जिसके घुँघुरुओं की झमक
ज़िन्दगी की तेज़तर रग पर
छू गयी है सधे नश्तर-सी
तुम कभी वह लगीं !
कभी तुमको मक्खियों की भीड़ से मैंने घिरी पाया !
किन्तु
सबके बाद
तुम में कहीं दर्पण की तरह कुछ है
और उसमें कई अंशों में बँटा मैं दिख रहा हूँ !

ग़रज़ यह मैं सदा तुम में रहा
तुम्हें गाया ! जिया ! तुमको सहा !
और फिर मैं आज
जब कुण्ठा भरी इस भीड़ में बिलकुल अकेला हूँ
आओ ! मृत्यु, आओ !
आज फिर आँचल उढ़ा दो मुझे !
राखी बाँधकर टीका लगा दो फिर !
करो - खिड़की खोल - मिलने का इशारा करो !
नाचो ! मुसकराओ !
चितवनों का अर्थ समझाओ !

करो ! मेरे सामने तुम हाथ अपना करो !
मैं स्वयं को धरूँगा उस पर !
करो-जल्दी करो-आगे करो अपना हाथ !
और...यदि यह सब नहीं सम्भव
सुला दो ! लोरियाँ गाकर सुला दो
मुझे जल्दी तुम !
नीं...द...में...शा...य...द...अ...के...ला...प...न...
न...र...ह...जा...ये !
मृत्यु ! जब उच्चारता हूँ तुम्हें
ध्वनित होता है सहज नारीत्व !