हास्य का प्रपात, प्राण मेरु से गिरा
कि ध्वनि बिखर उठी!
और एक कान पर रखे
करारविन्द
छबि निखर उठी।
हास्य-तंत्र हो गया जहान,
यों कि उग उठा खेत-खेत!
यों प्रवाहमान, नेह हो उठा
कि भीग बही रेत-रेत!
कनखियाँ मचल उठीं कि चुटकियाँ मरोर दें।
हों उबासियाँ, उदासियाँ कि चुहुल जोर दें।
खीझ, रीझ से हजार
यों बिगड़-बिगड़ उठी।
हास्य का प्रपात, प्राण-मेरु से गिरा--
कि ध्वनि बिखर उठी।
रचनाकाल: खण्डवा-१९५३