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ध्वन्यालेख तन्मयता के / सुरेश ऋतुपर्ण
Kavita Kosh से
ध्वनियों के भी आलेख होते हैं
जो लिखे नहीं जाते
और अमर होते हैं ।
शब्द जिन्हें बाँध नहीं पाते
दृश्य जो बन नहीं पाते
पर वे होते हैं
और गूँजते हैं ।
रह-रह झनझनाते हैं
हमारी अभिशप्त आत्मा को
तो भीतर का रिक्त
जैसे भर-भर जाता है ।
झर-झर जाता है
गंध-प्रपात कोई ।
और, आँख की तो मत पूछो
मोती ढुलकाती है ।
कैसा-कैसा हो आता है मन
यहाँ-वहाँ सब जगह हो आता है
और एक मासूम-सी चुप्पी मार
समर्पित हो जाता है ।
हाँ, ऐसा होता है
जब तन्मयता में होते हैं हम
और तन्मय !
कब होते हैं अब हम ?