भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नंगे-हस्ती थे वो जो तेरे तरफ़दार न थे / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नंगे-हस्ती थे<ref>धरती के कलंक</ref> वो जो तेरे तरफ़दार न थे ।
कौन कहता है जहन्नुम के तलबगार न थे ।।

कोई जुग था कि सचाई की विजय होती थी
क्या सबब ये है कि उस दौर में अख़बार न थे ।

तेरी आमद<ref>आगमन</ref> से दोबाला<ref>दुगना</ref> हुआ शायर का वक़ार<ref>इज्ज़त</ref>
कल तलक अहले-सुखन<ref>शायर लोग</ref> दार<ref>फाँसी</ref> के हक़दार न थे ।

पारसा<ref>पवित्रात्मा</ref> थे जो तेरी छाँह तले पलते थे
वो रियाकार<ref>पाखण्डी</ref> थे जो तेरे परस्तार<ref>उपासक</ref> न थे ।

जिनके धड़ थे उन्हें जी-भरके नवाज़ा तूने
जिनके सर अपनी जगह थे तेरे सरदार न थे ।

जेलख़ानों के अन्धेरों में वो महफ़ूज़<ref>सुरक्षित</ref> रहे
ये खता कम तो नहीं थी कि गुनहगार न थे ।

क्या ज़माना था कि मक़बूल हुआ करते थे
ऐसे कुछ लोग जो शायर थे गुलूकार<ref>गवैया</ref> न थे ।

शब्दार्थ
<references/>