भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नई दुनिया मुजस्सम दिल-कशी मालूम होती है / 'नुशूर' वाहिदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नई दुनिया मुजस्सम दिल-कशी मालूम होती है
मगर इस हुस्न में दिल की कमी मालूम होती है

हिज़ाबों में नसीम-ए-ज़िंदगी मालूम होती है
किसी दामन की हल्की थरथरी मालूम होती है

मेरी रातों की ख़ुनकी है तेरे गेसू-ए-पुर-ख़म में
ये बढ़ती छाँव भी कितनी घनी मालूम होती है

वो अच्छा था जा बेड़ा मौज के रहम ओ करम पर था
ख़िज्र आए तो कश्‍ती डूबती मालूम होती है

ये दिल की तिश्‍नगी है या नज़र की प्यास है साक़ी
हर इक बोतल जो ख़ाली है भरी मालूम होती है

दम-ए-आख़िर मुदावा-ए-दिल-ए-बीमार क्या मानी
मुझे छोड़ो के मुझ को नींद सी मालूम होती है

दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
चले आओ जहाँ तक रौशनी मालूम होती है

नसीम-ए-ज़िंदगी के सोज़ से मुरझाई जाती है
ये हस्ती फूल की इक पंखड़ी मालूम होती है

जिधर देखा ‘नशुर’ इक आलम-ए-दीगर नज़र आया
मुसीबत में ये दुनिया अजनबी मालूम होती है