नई धरती की पहली दीवाली / मुनीश्वरलाल चिन्तामणि
गिरमिटिये मज़दूरों ने 
अपनी नई धरती पर 
मनाई थी पहली दीवाली । 
उस वक्त, 
दीवाली की रोशनी ने 
दी होगी उनमें 
शक्ति - 
वक्त की चोटें सहने की, 
ज़ुल्म की मारें सहने की । 
इस ज्योति-पर्व ने 
मिटाया होगा । 
क्षण-भर के लिए 
निराशा के घोर अँधेरे को । 
उनके थके-हारे सपनों में 
कृष्ण भी आए होंगे 
द्रौपदियों की लाज बचाने के लिए । 
राम भी आए होंगे 
वनवास के दिन साथ काटने के लिए । 
चिता जली होगी सीता की यहाँ भी - 
अग्नि-परीक्षा देने के लिए । 
और हततेज अर्जुन को देखकर
कई बार कृष्ण 
रथ-चक्र उठाकर 
भीष्म पितमहों पर भी दौड़ पड़े होंगे । 
ये थे तो असहाय और विवश, 
पर अन्यायी के आगे 
घुटने टेक तो नहीं दिए थे ? 
इस गन्ने के खेतों में 
गूँज जाता है 
आज भी हाहाकार 
गिरमिटिये मज़दूरों का 
और जगर-मगर हो जाती है । 
अँधेरे में 
अनकी वह पहली दीवाली । 
उन दिनों के निविड़ अन्धकार में 
तलाश थी उनको 
प्रकाश के कुछ कणों की । 
वे यही सोचा करते थे 
कि उनका बहता हुआ पसीना 
उन दीपों के लिए तेल का काम करेगा ।
	
	