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नई रुत / ज़िया फतेहाबादी
Kavita Kosh से
ठिठुर रही है हर कली
शजर शजर है मुन्जमिद
हवा खुनक, फ़िज़ा खुनक
है रात सर्द, सर्द दिन
तपिश नहीं है धूप में
हरारत आग में नहीं
ये मुर्दा जिस्म बर्फ बर्फ
ये होंठ सर्द, गाल ज़र्द
दिया दिया, बुझा बुझा
वो गर्मजोशियाँ नहीं
वो बादानोशियाँ नहीं
मेरे ख़ुदा ! मेरे ख़ुदा ! बता बता
ये ज़िंदगी की रुत है क्या ? ये रुत है क्या ?