Last modified on 9 फ़रवरी 2024, at 06:27

नई सदी की तीसरी दहाई में / अदनान कफ़ील दरवेश

जब मुठ्ठी में, कैसे भी नहीं समाता
अन्धेरे का कोई सिरा
कमीज़ की तरह उतारना पड़ता है
हर बार एक-एक दिन
धुएँ में बदलती जाती है हर बात
शाम के आसेब में
रास्ते खोने लगते हैं, कहीं पहुँचाने का अपना हुनर

जब एक फूँक में झड़ जाता है
दीवार का सारा रोग़न
तब दीवानख़ानों में, जूतों का कीचड़ ही कहता है
आगे का सारा हाल
और उन नामुराद जूतों से भी
मरे चूहों जैसी बदबू आती है
आदमी सोचता है ये कैसी बदअम्नी है

और तभी
एक चम्मच के मोड़ में
उलट जाती है दुनिया
कानाफूसी में बदलने लगते हैं
मोम से चेहरे
और रौशनी सिर्फ़ थामे रहती है
बदकारी के सुतून

आवाज़ मुँह से निकलते ही
छलनी कर दी जाती है
सरे-राह...
दोस्त भी ख़ंजर बनकर ढूँढ़ते हैं, हमारा धँसा सीना

जब एक ज़रा-सी ओट में भी
ओट नामुमकिन हो जाती है
तब क्या कहें !

ख़ाब में भी
बन्दूक़ की ठण्डी नाल की तरह
सारी रात जागना होता है
अपने बिस्तर पर...