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नई साधना / रणजीत

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‘बोधिवृक्ष’ की छाया में हम भी बैठे हैं
हमने भी सोचा है, मनन किया है
फिर पाया आलोक ज्ञान का
अपने दीप स्वयं बनकर के
‘सुगति-मार्ग’ हमने भी ढूँढ़ा
जगती के सुख-दुख के कारण
और निवारण
हम भी समझे
बहुजन-हित के लिए ‘संघ’ की शरण ग्रहण की
सुना रहे हैं जन-जन को संदेश सत्य का
घूम-घूम कर
‘पशु-बलि’ का विरोध हम भी करते हैं
फिर भी यदि अन्वेषण के परिणाम हमारे
गौतम से कुछ अलग रहे हैं
तो वह बस इसलिए कि गौतम ने केवल
एक बार जीवन देखा था
- आँख खोल कर -
जरा-मृत्यु के एक रूप में
इसीलिए वे
जन्म-मरण के चक्कर को ही
दुख का मूल समझ बैठे थे
किन्तु हमारे आगे
अच्छी तरह ज़िन्दगी को जी सकने के सच्चे मस्ले हैं
लोगों की रोटी-रोज़ी की
उलझी हुई समस्याएँ हैं ।

हमने भी वश किया ‘इंगला औ’ पिंगला’ को
प्राणों का संयम हमने भी सीखा
- साँस रोक कर हम भी करते रहे प्रतीक्षा -
युग-युग से सोई जीवन की ‘कुण्डलिनी’ को
साध, जगाकर किया ऊर्ध्वमुख
नई साधना
लेकिन समझ गए जल्द ही:
अपना यह नाड़ी-मंडल तो बहुत सूक्ष्म है
- बहुत तुच्छ है -
इसीलिए तो
अपने से बाहर के जग की नाड़ी आज टटोल रहे हैं
आत्म-दमन तो युग-युग से करते आए हैं
किन्तु बाहरी रिपुओं की भी
- अधिक प्रबल जो -
ताक़त आज भुजाओं पर हम तौल रहे हैं
डोल रहे हैं
मेहनत का तप और स्वेद की भस्म रचा कर
नगर-नगर में, गाँव-गाँव में
किन्तु ब्रह्म का नहीं
साम्य का ‘अलख’ जगाने
क्योंकि आज हर साधक के सम्मुख
शून्य-गगन से धरा-सत्य पर आने के अतिरिक्त
नहीं पथ कोई
टूटी बिखरी मानवता का ‘योग’ छोड़कर
कोई सम्यक् योग नहीं है ।

हम भी झूम झूम कर गाते
मिलों-कारखानों-खेतों में
गीत प्रीत के
‘कंस’-ध्वंस केः
‘कान्ह’-जीत के
वृन्दावन की कुंजगलिन में
जैसे सूरा झूम रहा हो
‘सखा-भाव की भक्ति’ हमारी भी है
किन्तु हमारा कान्ह
सूर के सखा श्याम के अगर भिन्न है
तो वह बस इसलिए कि सूर ने
केवल एक श्याम को पहचाना था
और हमारी आँखों आगे
लाख-करोड़ों कान्ह खड़े हैं ।
जीवित मानव ।