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नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं / ज़ाहिद
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नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं
जो ये रोज़ ओ शब बदल दे वो निज़ाम चाहते हैं
वही शाह चाहते हैं जो ग़ुलाम चाहते हैं
कोई चाहता ही कब है जो अवाम चाहते हैं
इसी बात पर हैं बरहम ये सितम-गरान-ए-आलम
के जो छिन गया है हम से वो मुक़ाम चाहते हैं
किसे हर्फ़-ए-हक़ सुनाऊँ के यहाँ तो उस को सुनना
न ख़वास चाहते हैं न अवाम चाहते हैं
ये नहीं के तू ने भेजा ही नहीं पयाम कोई
मगर इक वही न आया जो पयाम चाहते हैं
तेरी राह देखती हैं मेरी तिश्ना-काम आँखें
तेरे जलवे मेरे घर के दर ओ बाम चाहते हैं
वो किताब-ए-ज़िंदगी ही न हुई मुरत्तब अब तक
के हम इंतिसाब जिस का तेरे नाम चाहते हैं
न मुराद होगी पूरी कभी उन शिकारियों की
मुझे देखना जो 'ज़ाहिद' तह-ए-दाम चाहते हैं