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नए सपने बुनें / इंदिरा शर्मा
Kavita Kosh से
चलो , आज शाम फिर दूर कहीं
नदी किनारे बैठें , गुमसुम न रहें
चलो , कुछ नए सपने बुनें |
वो नदिया का छल - छल पानी
लहरों की चुन्नट में सिमटा
एक नया रजत ख़ामोश चाँद चुनें ,
चलो , कुछ नए सपने बुनें |
भटके हुए हैं तारे गगन में
लहरों में तिरते हैं बेचैन हो कर
कुछ मधुर गीत उनके नाम लिखें ,
चलो , कुछ नए सपने बुनें |
लौटने लगे थके परिंदे नीड़ों में
उतर आया शाखों पे अँधेरा धीरे
उनके कुछ रेशमी जज़्बात सुनें ,
चलो , कुछ नए सपने बुनें |
कुछ कहता है रात का आलम मुझसे
पकड़े चांदनी का हाथ , फ़लक तक टहलें
दिल की धड़कनों को चुपचाप गुने ,
चलो , कुछ नए सपने बुनें |