नकली कवियों की वसुंधरा / श्रीकांत वर्मा
धन्य यह वसुंधरा! मुख में
इतनी सारी
नदियों का झाग,
केशों में अंधकार!
एक अंतहीन प्रसव-पीड़ा में
पड़ी हुई
पल-पल
मनुष्य उगल रही है,
नगर फेंक रही है,
बिलों से मनुष्य निकल रहे हैं,
दरबों से मनुष्य निकल रहे हैं...
टोकरी के नीचे छिपे
मुर्गों के मसीहा कवि
बाँग दे रहे हैं
सुबह हुईऽऽ
धन्य! धन्य! कवियों की ऐयाशी झूठ में
लिपटी
वसुंधरा!
- वसुंधरा! सूजा हुआ है क्यों
उदर?
नसें क्यों
विषाक्त हैं?
साँसों में
सीले - जंगल - जैसी
यह कैसी
बास है
कवियों की झूठ में लिपटी हुई
वेश्या - माँ
अपनी संतानों का स्वर्ग देख रही है...
बरस रहा हैं अंधकार इस कुहासे पर
भुजा पर,
मसान पर,
समुद्र पर,
दुनिया-भर के तमाम
सोए हुए
बंदरगाहों पर
डूबती हुई अंतिम
प्रार्थना पर
बरस रहा है
अंधकार -
मगर वेश्याई स्वर्ग में
फोड़ों की तरह
उत्सव फूट रहे हैं।
बरस रहा है अंधकार!
मगर उल्लू के पट्ठे!
स्त्रियाँ-रिझाऊ कविताएँ
लिख रहे हैं।
भेड़ियों के कोरस की तमाच्छन्न अंध-रात्रि!
मनुष्य के अंदर
मनुष्य,
सदी के अंदर
एक सदी
खो रही है -
मगर इससे क्या! वसुंधरा
सोए मसानों में
जागते मसान
बो रही है।
आदमी का कोट पहन
चूहे
निर्वसन मनुष्य की
पीठ कस रहे हैं;
चुहियों के कंधों पर
पंख
फूट रहे हैं और कंठ में
क्लासिक संगीत!
अंधकार में सबके सब
बिल्लियों की तरह
लड़ रहे हैं।
नकली वसंत के
गोत्रहीन पत्ते
झड़ रहे हैं।
धन्य! धन्य! ओ नकली कवियों के वसंत में
लिपटी वसुंधरा !
- वसुंधरा! तेरे शरीर पर
झुर्रिया हैं
अथवा
दरार
होठों पर उफन रहा
पाप!
छटपट कर
टूट रहे
चट्टानी हाथ!
धो-धो जाता है
कौन
बार-बार आँसू से
कीचड़ से लथपथ
इस
पृथ्वी के पाँव?
नदियों पर झुका हुआ काँपता है कौन:
कवि
अथवा
सन्निपात?
जिज्ञासाहीन अंधकार में
कीचड़ की शय्या पर
स्वप्न देखी हुई
सुखी है वसुंधरा! मनुष्य
उगल रही है
नगर
फेंक रही है।
टोकरी के नीचे कवि बाँग दे रहे हैं।