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नक़्शे में खून / हेमन्त कुकरेती

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यह नक़्शा पुरानी दीवार पर ऐसे चिपका है
कि मुझे देखकर डर रहा हो

क्या-क्या समेट सकता है यह नक़्शा अपनी रेखओं में
मेरा भय कि हर सुबह मुझे वहाँ पहुँचना है
जहाँ मेरा कोई इन्तज़ार नहीं करता
मेरी ख़ुशियाँ क्या इसके सागरों में डूब गयी हैं?

जब हम दुखी होते हैं तो पहाड़ की तरफ़ दौड़ते हैं
पठारों पर छुपते हैं
या महानगर में आ जाते हैं मरने के लिए
नक़्शे में कोई नहीं भागता

नक़्शा कोई बाघ है क्या
जिसके दाँतों पर मेरा मांस लगा है
अपनी आज़ादी से ऊबे हुए
लोगों का कोलाहल है नक़्शे में
एक मक्खी मँडरा रही है नक़्शे पर
कहाँ है उसकी जगह?

बाहर आकाश घिर रहा है
मैं भागता हूँ अपने घर
नक़्शे में उसका कोई ठिकाना नहीं है
वहाँ धूल है जिस पर मेरा खू़न टपक रहा है टप्-टप्-टप्