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नक़्श ए इमकां नक़्श ए पा ए यार से दीगर न था / निर्मल 'नदीम'

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नक़्श ए इमकां नक़्श ए पा ए यार से दीगर न था,
हलका ए ज़ंजीर हुस्न ए दार से दीगर न था।

वो बहार आयी थी गुलशन में टपकता था लहू,
रंग ए गुल रंग ए दिल ए आज़ार से दीगर न था।

ख़्वाब ख़ुद अपने जलाकर हो गया वीरान दिल,
तूर ताब ए हसरत ए दीदार से दीगर न था।

ज़िन्दगी की रौ बढ़ाता जाता था हर गाम वो,
चेहरा उसका हुस्न ए पुरअसरार से दीगर न था।

जान की आतिशफ़िशानी रूह से लिपटी रही,
जिस्म जिन्दां की किसी दीवार से दीगर न था।

शम्स था इक बोसा ए इक़रार उसके इश्क़ का,
आसमां क्या था मेरी दस्तार से दीगर न था।

जिनकी रंगत से उभर आती थी सहरा में धनक,
दामन ए अनवार उन रुख़सार से दीगर न था।

शरह ए वहशत हा ए दिल कैसे पहुंचती थी वहां,
कोई था मुझमें मगर अग़यार से दीगर न था।

हर किसी में थी निहां ताब ए नुमाइश इक नदीम,
हाल ए दिल भी गर्मी ए बाज़ार से दीगर न था।