भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नक्शा जो मन के कागज़ पर बनता है / विनय कुमार
Kavita Kosh से
नक्शा जो मन के कागज़ पर बनता है।
उसके जैसा कहाँ कभी घर बनता है।
एक पुराने डर के चलते बनवाया
घर के चलते रोज़ नया डर बनता है।
शीत युद्ध के अंदेशे के साये में
क़दम क़दम पर रिश्ता बंकर बनता है।
गेहुअन बनकर गद्दी पानेवाले को
गद्दी जब डसती है अज़गर बनता है।
मेरे भीतर बस मेरा ‘मैं’ रहता है
मेरा जो है मेरे बाहर बनता है।
दुख का धंधा छोड़ोगे तो समझोगे
कैसे कोई दुख पैग़म्बर बनता है।
पैरों के नीचे पानी सिर पर पृथ्वी
जब भी कोई देश दिगम्बर बनता है।
बनता है जनवरी काम पड़ जाने पर
जैसे निकला काम दिसम्बर बनता है।