नक्षत्र में बदल गया बूढ़ा कवि / प्रदीप मिश्र
नक्षत्र में बदल गया बूढ़ा कवि
(अग्रज कवि नागार्जुन के लिए )
एक
नहीं रहा अब
जल गयी उसकी चिता
पंचतत्व में लीन हो गया
बहुत बड़ा कवि था
जन कवि
उसके काव्यलोक में
समायी हुई है पृथ्वी
वह खुद भी समा गया
अपने काव्यलोक में
अपने काव्यलोक में समा गए
कवि की शोकसभा से लौट रहा हूँ
जैसे सुबह की प्रार्थना के बाद
बच्चे लौटते हैं
अपनी कक्षाओं में ।
दो
नागार्जुन / एक शब्दलोक
जिसमें तीनों लोक
नागार्जुन / एक पदचाप
जिसकी गूँज
दरभंगा के खेत-खलिहानों से
राजधानी के राजपथ तक
नागार्जुन / हृदय के अंतिम तार को
झंकृत करती
वटवृक्ष की खामोशी
नागार्जुन / एक बूढ़ा कवि
जिसका अनहद नाद
हमेशा ही रहेगा
हमारे बीच
जैसे रहतीं हैं जैसे लोक कथाएं।
तीन
एक बूढ़ा कवि
जिसकी सफेद झ़क दाढ़ी में
गुम हो गया था काला रंग
शनि को काड़ते हुए
काँख में वृहस्पति को दबाए
सूरज की तरफ निकल गया
नक्षत्र में बदल गया
एक बूढ़ा कवि
नागार्जुन।