नक्‍श-ए-कदम हुआ हूँ मोहब्बत की राह का / 'सिराज' औरंगाबादी

नक्‍श-ए-कदम हुआ हूँ मोहब्बत की राह का
क्या दिल-कुशा मकाँ है मिरी सजदा-गाह का

गर्मी सीं आफ़ताब-ए-क़यामत की क्यूँ डरूँ
साया है मुझ कूँ सर्व-ए-क़यामत-पनाह का

नासूर हो के रोज़-ए-क़यामत तलक बहे
जिस के जिगर में तीर लगे तुझ निगाह का

पिउ का जमाल देख हुआ चाक चाक दिल
ज्यूँ कि कताँ पे अक्स पड़े नूर-ए-माह का

डोरे नहीं हैं सुर्ख़ तेरी चश्‍म-ए-मस्त में
शायद चढ़ा है ख़ून किसी बे-गुनाह का

दिल तुझ बिरह की आग से क्यूँकर निकल सके
शोला सीं क्या जलेगा कहो बर्ग-ए-काह का

सुम्बुल है ज्यूँ कि जलवा-नुमा जू-ए-बार पर
आँखों में मेरी अक्स वो ज़ुल्फ-ए-सियाह का

महताब-रू के रूख़ पे सियह ख़त नहीं ‘सिराज’
बाकर खुला हुआ है मिरे दूदा-आह का

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