भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नखरा करकै मनैं जगागी सुते का हाथ पकड़ कै / मेहर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुपने के म्हां बहु मेरी गई लिकड़ पिलंग कै जड़कै
नखरा करकै मनैं जगागी सुते का हाथ पकड़ कै।टेक

सुपने के म्हां घरां डिगरग्या ले दस दिन की छुट्टी
फेर बहू मनैं देख की झट पीढे पर तै उठ्ठी
भूरी-भूरी आंगलियां म्हं पहर रही थी गुठ्ठी
चार पहर तक हम बतलाए एक बुक्कल म्हं बड़कै।

सुपने के म्हां आज रात मनैं आगया ख्याल बहू का
जड़ म्हं बैठ कै बूझ लिया मन सारा हाल बहू का
गोल-गोल मुखचन्दा कैसा मुखड़ा लाल बहू का
आज तलक ना ठीक हो लिया कर्या हुअया घायल बहू का
के तो आज्या नाम कटा कै ना मरूं कुए म्हं पड़कै।

तेरे तैं तेरा छोटा भाई कमरे बीच बुलावै
मैं पहलां चली जां तो वो पाच्छे तैं आवै
ओढूं पहरूं सिंगरू तो या दुनियां बुरी बतावै
अपणी ब्याही की तिरयां वो सारे हुक्म चलावै
जिसा सुपना मनैं आज आया इसा बेशक आइयो तड़कै।

कहै मेहरसिंह सुपने म्हं ढंग होग्या चाप सिंह आला,
इसा महोब्बत नैं घेर लिया ज्यूं मकड़ी नै जाला
भूरी-भूरी ढोड़ी पै तिल खिण्वारी थी काला
जै छोरा ले देख बहू नैं खाकै पड़ै तिवाला
कित बरेली कित बरोणा मेरी सुते की छाती धड़कै।