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नगर में आए हैं तो ख़ानदान है ग़ायब / अनिरुद्ध सिन्हा

नगर में आए हैं तो ख़ानदान है ग़ायब
पिता की याद का कच्चा मकान है ग़ायब

कहाँ से चाँद सितारों पे हो चहलक़दमी
हमारे सर से अभी आसमान है ग़ायब

किसी ने प्यार से आकर जो छू लिया मुझको
बदन के ज़ख्म का हर इक निशान है ग़ायब

थका -थका सा परिन्दा उदास बैठा है
परों से जाने क्यों उसकी उड़ान है ग़ायब

बिखरते- टूटते लम्हों की दास्ताँ चुप है
हमारे मुँह से हमारी ज़ुबान है ग़ायब