नगर में आत्महत्या / श्रीनिवास श्रीकांत
वह थी अपनी गुडियों में से एक गुड़िया
जिसे पिता की स्नेहिल आँच ने
पिघलाया था
मोम की तरह
तब दुनिया ऐसी लगी थी
जैसे दूर देश से आया समुद्र
चन्द्रमा का दर्पण
पानी के घोड़ों पर सवार लहरों का राजकुमार
जब कि तट वह स्वयं थी
किशोर-काल बीत गया
आने वाले समय के सपने बुनते-बुनते
सुखों का एक सपनीला मोजेक
जिसमें वह थी एक परी
हिमालय के शंकु वन की अल्हड़ हवा
पिता आकाश की स्नेहिल गोद में निद्रामग्र
दूधीली रंगीन भोरों
और सिमटती संध्याओं के बीच
उगता-डूबता उसकी आँखों में सूरज
अपने किरमिजी, जोगिया, नीलपुष्पी
रंगों के साथ
शाम होते ही बजने लगती कुनमुन श्रवणों में
दर्दीली वीणा की मधुर ध्वनियाँ
और वह अस्त होते समय की सीढिय़ाँ उतरते
करने लगती कल्पना में विहार
आँखों में दमकने लगता
घोड़े पर सवार हठीले नायक का
दीप्तिमान कल्पित चेहरा
प्यार उसने किया होगा
मालूम नहीं
पर कटे हुए तरबूज की तरह थी उसकी हँसी
नारंगी की फाड़ों की तरह उसने समेटा था
अपना यौवन
जब वह हँसती तो फूटते दाडि़म
जाने किसकी लगी होगी उसे बुरी नज़र
दूध में जैसे पड़ जाए अचानक
अलकतरा कोयला
या किसी बदजात चुड़ैल का
जादू-टोना था वह
वह थी एक कुटिलक्ष-परिमण्डल में
मौत उसे अपने कमन्द से खेंच रही थी
अपनी ओर
निद्राचारी वह आत्मविस्मृति में जगी
स्मृतियों की जगह नाच रहा था उसकी आँखों में
एक बेडौल काला-धब्बा
मद्घम पड़ गये थे उसके आसमान के
सभी सितारे
वह लटक गयी थी
झूलती रस्सी के सहारे
मृत्यु को समर्पित
उसका चेहरा था निर्विकार
जैसे हज़ार-हज़ार फूलों की
दब गयी हो अकस्मात चीख़
जैसे चंचल चुलबुली हवा
रह गयी हो स्तब्ध
गहन शोक में डूबा था
उसका पिता
उसका परिवार
उसकी सहेलियाँ।