भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नगर सेठ की गाडी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दो बैल जुते इस गाड़ी में,
यह नगर सेठ की गाड़ी है।
लोगों का पीछा करती है,
न उनसे कभी पिछड़ती है।
कितना भी तेज चले जनता,
यह साथ-साथ में चलती है।

है बिना रुके ही चढ़ जाती,
यह ऊंची बड़ी पहाड़ी है।
यह नगर सेठ की गाड़ी है।
गर्दन में घुंघरू बंधे हुए,
खन-खन का शोर मचाते हैं।
सब नगर सेठ की गाड़ी को,

जग में बेजोड़ बताते हैं।
है बैलों की पहचान अलग,
लम्बी मूंछें हैं दाढ़ी है।
यह नगर सेठ की गाड़ी है।
यह नगर सेठ की गाड़ी जब,
चलती, तो चलती जाती है।

पड़ते हैं पाँव जहाँ इसके,
पग चिह्न छोड़ यह आती है।
यह सीधी नहीं चली अब तक,
यह चलती तिरछी आड़ी है।
यह नगर सेठ की गाड़ी है।
यह सेठ बड़ा व्यापारी है,

बच्चों से इसकी यारी है।
बच्चों को आगे ले जाना,
इस गाड़ी की तैयारी है।
दम लेगी मंज़िल तक जाकर,
यह गाडी अभी दहाड़ी है।
यह नगर सेठ की गाड़ी है।

बच्चे होते प्रतिभा शाली,
बच्चे ही देश बनाते हैं।
बच्चों के ओंठों पर आकर,
ही भाग्य देव मुस्काते हैं।
मारा जिसने मैदान वही तो,
होता बड़ा खिलाडी है।
यह नगर सेठ की गाड़ी है।