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नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में / साग़र निज़ामी
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नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में,
पैदा हुईं ज़बानें जंगल की ख़ामुशी में ।
उस वक़्त की उदासी है देखने के क़ाबिल,
जब कोई रो रहा हो अफ़्सुर्दा चाँदनी में ।
कुछ तो लतीफ़ होतीं घड़ियाँ मुसीबतों की,
तुम एक दिन तो मिलते दो दिन की ज़िन्दगी में ।
हंगामा-ए-तबस्सुम है मेरी हर ख़मोशी,
तुम मुस्कुरा रहे हो दिल की शगुफ़्तगी में ।
ख़ाली पड़े हुए हैं फूलों के सब सहीफ़े,
राज़-ए-चमन निहाँ है कलियों की ख़ामुशी में ।