भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नग्न आदमी / रकेल लेन्सरस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक आदमी शीशे के सामने निर्वस्त्र होता है ।
दिन की आँखों को
काँच में लगा जोड़ उसके चिकनेपन में दिखाई देता है ।
उसके धड़ पर से धीमे-धीमे फिसलती
रोशनी गिरती है
चाह की उसी सुनिश्चितता से
जैसे एक धातु की धार
फिसलती है एक हीरे पर से ।
भोर की तरह तुम रुपहली पंखुरियों में छितर जाती हो
जो धीमे-धीमे बरसती हैं मेरे आत्मा पर ।
तरसती समझने के लिए उस पवित्र रहस्य को
जिसने नए प्रकट हुए जीवन को घेर रखा है ।

मैं सोचती हूँ : पुनः पतन की तरह पारदर्शी
ये छिद्र चमकते हैं ।
फिर मैं ऊँचे स्वर में कहती हूँ : तुम्हारी मर्दानी देह के लिए मैं वो हूँ
जो तुम्हारे लिए वेनिस के पुल थे ।
बाद में,
तुम अपने सघन सौंदर्य के कहीं भीतर से मुझे देखते हो,
जो है भाग्यों और तत्वों से बहुत दूर,
केवल अपने चक्कर में संरेखित,
स्वयं से अनुपस्थित,
बहता हुआ ।

मैं तुम्हें ऐसे याद रखना चाहती हूँ ।

स्पानी भाषा से हिन्दी में अनुवाद : रीनू तलवार