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नग्न निर्वसन हाथ / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

रोशनी की रहस्यमयी सहोदरा-सा
आकाश में प्रगाढ़ हो उठा है अन्धेरा...
जिसका चेहरा तक नहीं देखा,
जिसने सदियों से मुझे चाहा
उस नारी की तरह
फागुन के आकाश में निविड़ हो उठा है अन्धेरा।

स्मृति खनकती है-भीतर कोई एक खोई हुई नगरी की
भारत के तीर पर...उस धूल धूसर महल की
या कि जो था भूमध्य सागर के कगार पर
या सिन्धु के पास...
आज नहीं है लेकिन कभी थी वह नगरी...
कीमत असबाबों से भरा, कोई एक महल था...
ईरानी गलीचे, कश्मीरी नमदे
नदी की तरंग से निकला एक साबुत मोती-प्रवाल आच्छादित,
मेरा विलुप्त मन, मेरी मरी आँखें, मेरी खोयी स्वप्नाकांक्षा
और नारी तुम
किसी समय, एक दिन यह सब कुछ था।
संतरे के रंग लिए ढेर सारी धूप
ढेरों पहाड़ी तोते और कबूतर
थे महोगनी की छाया में पल्लव ही पल्लव
संतरे के गाढ़े चमकते रंग की धूप
और तुम...

शताब्दियों से तुम्हें देखा नहीं
ढूँढ़ा तक नहीं...
लेकिन आज फागुनी अँधेरा ले आया है
उसी समुद्र पार की कहानी
अपरूप महल और गुम्बदों की पीड़ा-रेखा
और नाशपाती की खोयी गंध
हज़ारों हिरनों और बघछल्लों वाली धूसर पाण्डुलिपियाँ,
इन्द्रधनुषी शीशे के झरोखे
पर्दे-पर्दे पर भोर की रंगीन चमक
कमरे और कमरों से और दूर, कमरे और कमरों के भीतर
क्षणिक आभास-
जीर्ण, स्तब्ध और आश्चर्य।
पर्दे के गलीचे परलाल धूप का बिखरा स्वेद,
गिलास में लाल तरबूजों का रस
नग्न निर्जन हाथ तुम्हारा
तुम्हारा नग्न निर्वसन हाथ...